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चीनी उद्योग
चीनी उद्योग भारत का दूसरा सबसे पहा कृषि-आधारित उद्योग है। इसके लिए मूलभूत कच्चा माल गन्ना है, जिसकी कुछ गुणात्मक विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
- यह अपना वजन खोने वाला कच्चा माल है।
- इसे तंबे समय तक भंडारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस स्थिति में यह सुक्रोज का क्षय कर देता है।
- इसे लंबी दूरी तक परिवहित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी परिवहन लागत अधिक होती है और इसके सूखने की भी आशंका रहती है।
- इन कारणों से चीनी मिलों की स्थापना गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के आसपास ही की जाती है। इसके अतिरिक्त गन्ने की कटाई का एक विशेष समय होता है
- और उसी समय में इसकी पिराई की जाती है। अतः उस सीमित काल को छोड़कर शेष समय में चीनी मिलें बिना कामकाज के खाली पड़ी रहती हैं। इससे चीनी उत्पादन पर कई सीमाएं आरोपित हो जाती हैं।
भौगोलिक वितरण:
- उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी, जो चूना व पोटॉश की दृष्टि से समृद्ध होती है।
- समतल स्थलरूप, जो सिंचाई के लिए उपयुक्त है।
- प्रसंस्करण एवं धुलाई हेतु जल की पर्याप्त उपलब्धता।
- चीनी उद्योग कोयला एवं विजती पर कम निर्भर होता है, क्योंकि इसे गन्ने की खोई के रूप में पर्याप्त ईधन मिल जाता है।
- अच्छी यातायात सुविधाओं से जुड़ा निकटवर्ती क्षेत्रों का सघन जनसंख्या वाला बाजार।
- सस्ते श्रम की उपलब्धता।
- गन्ने की खेती संयुक्त खंडों में की जाती है, जिससे ताजा गन्ना मिलों तक शीघ्र पहुंच जाता है।
देश में चीनी की कुल उत्पादन क्षमता का लगभग 70 प्रतिशत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में होता है। भारत में चीनी उद्योग के प्रमुख केंद्रों का प्रदेशवार विवेचन इस प्रकार है-
उत्तर प्रदेश: यहां दो पेटी हैं- एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दूसरी पूर्वी उत्तर प्रदेश। पश्चिमी पेटी में मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, और मुरादाबाद तथा पूर्वी पेटी में गोरखपुर, देवरिया, बस्ती एवं गोंडा स्थित हैं।
बिहार: यहां दरभंगा, सारण, चम्पारण और मुजफ्फरपुर में चीनी मिलें स्थित हैं।
इन दोनों प्रदेशों में चीनी उद्योग संकेन्द्रित होने के निम्न कारण हैं-
इन दोनों प्रदेशों में चीनी उद्योग संकेन्द्रित होने के निम्न कारण हैं-
महाराष्ट्र: नासिक, पुणे, सतारा, सांगली, कोल्हापुर तथा शोलापुर। यहां सहकारी क्षेत्र के अंतर्गत चीनी मिलों एवं गन्ने की खेती का प्रबंधन किया जाता है।
पंजाब: फगवाड़ा, धुरी।
कर्नाटक: मुनीराबाद, शिमोगा एवं मंड्या।
तमिलनाडु: नलिकूपुरम, पुगलूर, कोयंबटूर एवं पांड्यराजपुरम।
आंध्र प्रदेश: निजामाबाद, मेडक, पश्चिमी व पूर्वी गोदावरी, चितूर एवं विशाखापट्टनम।
आोडीशा: बारगढ़, रायगडा।
मध्य प्रदेश: सिहोर।
पंजाब: फगवाड़ा, धुरी।
कर्नाटक: मुनीराबाद, शिमोगा एवं मंड्या।
तमिलनाडु: नलिकूपुरम, पुगलूर, कोयंबटूर एवं पांड्यराजपुरम।
आंध्र प्रदेश: निजामाबाद, मेडक, पश्चिमी व पूर्वी गोदावरी, चितूर एवं विशाखापट्टनम।
आोडीशा: बारगढ़, रायगडा।
मध्य प्रदेश: सिहोर।
उत्तरी भारत एवं प्रायद्वीपीय भारत के चीनी उत्पादन में अंतर:
- दक्षिण भारत में उत्पादकता उच्च है।
- उष्णकटिबंधीय किस्म का होने के कारण दक्षिणी भारत के गन्ने में सुकोज का अधिक अंश पाया जाता है।
- दक्षिण भारत में पिराई सत्र अधिक लंबा होता है, जो अक्टूबर से मई-जून तक चलता है, जबकि उत्तर भारत में पिराई सत्र नवंबर से फरवरी तक ही चलता है।
उष्णकटिबंधीय जलवायु, सिंचाई तथा यातायात की सुविधाओं के बावजूद प्रायद्वीपीय भारत के चीनी उद्योग की प्रगति तुलनात्मक रूप से धीमी रही है, जिसके पीछे निम्नलिखित कारण हैं-
- इस क्षेत्र में उगायी जाने वाली अन्य नकदी फसलें- कपास, मूंगफली, नारियल, तंबाकू इत्यादि किसानों के लिए अधिक लाभदायक सिद्ध होती हैं।
- महाराष्ट्र में उच्च सिंचाई दरों एवं मंहगी उर्वरक पद्धतियों के कारण उत्पादन लागत बहुत अधिक बढ़ जाती है।
- प्रायद्वीपीय भागों में गन्ना संयुक्त खंडों के अंतर्गत नहीं उगाया जाता, जैसाकि उत्तर प्रदेश और बिहार में।
चीनी उद्योग की समस्याएं:
- देश में अच्छी किस्म के गन्ने का अभाव है। भारतीय गन्ने में सुक्रोज अंश की कमी होती है तथा इसकी उत्पादकता निम्न होती है।
- उत्पादन की गैर-आर्थिक प्रकृति, अल्प पिराई सत्र, भारी उत्पाद शुल्क तथा भंडारण के एकाधिकार के कारण चीनी की उत्पादन लागत अत्यधिक ऊंची हो जाती है।
- पुरानी तकनीक पर आधारित छोटी एवं गैर-आर्थिक इकाइयां अभी भी कार्य कर रही हैं।
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