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सूती वस्त्र उद्योग
सूती वस्त्र का प्रथम आधुनिक कारखाना 1818 में फोर्ट ग्लास्टर, कोलकाता में लगाया गया था। भारतीय पूंजी से प्रथम सफल कारखाना कवास जी डाबर द्वारा 1854 में मुंबई में लगाया गया।सूती वस्त्र उद्योग एक शुद्ध कच्चा माल आधारित उद्योग है।अतः उद्योग की स्थापना कच्चे माल क्षेत्र या बाजार क्षेत्र कहीं भी की जा सकती है।प्रारम्भ में इस उद्योग का विकास कपास उत्पादन वाले क्षेत्रों (मुंबई ,अहमदाबाद आदि) में हुआ। बाद में इसका विकेन्द्रीकरण बाजार की सुविधा वाले क्षेत्रों में हुआ।
सूती वस्त्र का उत्पादन तीन क्षेत्रों के तहत होता है – कारखाना मिल क्षेत्र , शक्ति चालित करघे (पावरलूम क्षेत्र),हथकरघे (हैंडलूम क्षेत्र)
कुल कपड़ा उत्पादन में सूती कपड़े का योगदान लगभग 70 प्रतिशत है। मुंबई तथा उसके आसपास सूती वस्त्र उद्योग के संकेंद्रित होने के पीछे कई कारकों का योगदान है, जो इस प्रकार हैं-
  • बंदरगाह की अवस्थिति से पूंजीगत सामानों, रसायनों इत्यादि का आयात करना तथा तैयार माल का निर्यात करना सुगम हो जाता है।
  • मुंबई रेत व सड़क मार्गों द्वारा गुजरात एवं महाराष्ट्र के कपास उत्पादक क्षेत्रों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।
  • आर्द्र तटीय जलवायु कपड़ा निर्माण के अनुकूल सिद्ध होती है।
  • मुंबई के आस-पास रसायन उद्योग के विकास के फलस्वरूप जरूरी आगत आसानो से उपलब्ध हो जाते हैं।
  • वितीय एवं पूंजी संसाधनों की उपलब्धता उद्योग के विकास में सहायता करती है।
  • उद्योग के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध हो जाता है।
  • अहमदावाद भी एक अन्य सूती वस्त्र उद्योग केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। यहां की मिलों का आकार छोटा है किंतु इनमें उत्पादित सूती वस्त्र की गुणवत्ता उच्च है। उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति महाराष्ट्र एवं गुजरात के कपास उत्पादक क्षेत्रों द्वारा की जाती है।
भौगोलिक वितरण:
सूती वस्त्र उत्पादक केंद्रों का राज्यानुसार विवरण इस प्रकार है-
    महाराष्ट्र: मुंबई, शोलापुर, जलगांव, पुणे, कोल्हापुर, अकोला, सांगली तथा नागपुर।
    गुजरात: अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, भरूच, नदियाड़, भावनगर, पोरबंदर, राजकोट तथा नवसारी।
    तमिलनाडु: चेन्नई, सेलम, विरुधनगर, पोल्लाची, मदुरै, तूतीकोरन, तिरुनेलवेल्ली तथा कोयंबटूर।
    कर्नाटक: बंगलौर तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र।
    उत्तर प्रदेश: कानपुर, इटावा, मोदीनगर, बरेली, हाथरस, आगरा, मुरादाबाद, मेरठ तथा वाराणसी।
    मध्य प्रदेश व छतीसगढ़: इंदौर, ग्वालियर, देवास, उज्जैन, नागदा, भोपाल, जबलपुर तथा राजनदगांव।
    राजस्थान: कोटा, श्रीगंगानगर, जयपुर, भीलवाड़ा, भवानीमंडी, उदयपुर तथा किशनगढ़।
    पश्चिम बंगाल: कोलकाता, हावड़ा, सेरामपुर, श्याम नगर, सैकिया तथा मुर्शिदाबाद।
भारतीय सूती कपड़ा उद्योग की एक जटिल त्रि-स्तरीय अवसंरचना है-
  • हाध की कताई और दुनाई का खादी क्षेत्र,
  • मध्यवर्ती, हथकरघा का श्रम गहन क्षेत्र,
  • मिल क्षेत्र, जो बड़े पैमाने पर होता है, पूंजी गहन और जटिल होता है।
सूती वस्त्र का अधिकांश भाग हैंडलूम तथा पॉवरलूम क्षेत्रों से आता है। भारत का सूती कपड़ा उद्योग एकमात्र सबसे बड़ा संगठित उद्योग है। यह काफी संख्या में श्रमिकों को रोजगार प्रदान करता है तथा अनेक सहायक उद्योगों को समर्थन देता है। विभाजन के फलस्वरूप कच्चे माल की आपूतिं में समस्या आयी क्योंकि कपास उत्पादक क्षेत्र का 52 प्रतिशत भाग पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था। इस समस्या से निपटने के लिए आयात तथा कपास उत्पादक क्षेत्र के विस्तार का सहारा लिया गया।
देश में एक-तिहाई करघे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, असम और उत्तर प्रदेश राज्यों में स्थित हैं। तीन-चौथाई करघे कपास का उत्पादन करते हैं जबकि शेष सिल्क स्टेपल फाइबर, कम्पोजिट फाइबर, ऊन, कृत्रिम सिल्क और सिंथेटिक फाइबर का उत्पादन करते हैं।
सूती कपड़ा उद्योग की समस्याएं:
  • कच्चे माल, मुख्यतः लंबे रेशे वाले कपास की कमी रहना।
  • उद्योग को निरंतर रुग्णता एवं बंदी की चुनौती का सामना करना पड़ता है। इसका कारण कच्चे माल की अनिश्चितता, मशीनों व श्रमिकों की निम्न उत्पादकता, पॉवरलूम क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा, आधुनिकीकरण का अभाव तथा प्रबंधन समस्याओं का व्याप्त रहना।
  • अधिकांश चरखियां तथा करघे पुराने तरीके के हैं। भारत में स्वचालित करघों का प्रतिशत विश्व में सबसे कम है।
  • विदेशी बाजार के खोने का खतरा, जो उत्पादन लागत में निरंतर वृद्धि, अन्य विकासशील देशों में सूती कपडा उद्योग के विकास तथा अन्य देशों की संरक्षण वादी नीतियों के कारण पैदा हुआ है।
  • बिजली तथा मशीनरी की अपर्याप्तता भी इस उद्योग की एक प्रमुख समस्या है।
  • बंद मिलों की बढ़ती हुई संख्या कपड़ा क्षेत्र के संरचनात्मक रूपांतरण का संकेत देती है। संगठित क्षेत्र की बुनाई मिलें विकेन्द्रीकृत क्षेत्र के पॉवरलूनों के लिए स्थान खाली छोड़ती जा रही है, जिसका कारण पॉवरलूमों का अधिक लागत प्रभावी होना है।

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