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Showing posts from March, 2020

soil-erosion

प्रस्तावना मृदा कृषि का आधार है। यह मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं, यथा- खाद्य, ईंधन तथा चारे की पूर्ति करती है। इतनी महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी मिट्टी के संरक्षण के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। फलतः मिट्टी अपनी उर्वरा शक्ति खोती जा रही है।  मृदा अपरदन वस्तुतः मिट्टी की सबसे ऊपरी परत का क्षय होना है।  सबसे ऊपरी परत का क्षय होने का अर्थ है-समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं हेतु मिट्टी का बेकार हो जाना। मृदा अपरदन प्रमुख रूप से जल व वायु द्वारा होता है। यदि जल व वायु का वेग तीव्र होगा तो अपरदन की प्रक्रिया भी तीव्र होती है। मृदा अपरदन के प्रकार मृदा अपरदन के निम्नलिखित प्रकार है सामान्य अथवा भूगर्भिक अपरदन:  यह क्रमिक व दीर्घ प्रक्रिया है; इसमें जहां एक तरफ मृदा की ऊपरी परत अथवा आवरण का ह्रास होता है वहीं नवीन मृदा का भी निर्माण होता है। यह बिना किसी हानि के होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है। तीव्र अपरदन:  इसमें मृदा का अपरदन निर्माण की तुलना में अत्यंत तीव्र गति से होता है। मरुस्थलीय अथवा अर्द्ध-मरुस्थलीय भागों में जहां उच्च वेग की हवाएं चलती हैं तथ...

india-ek-parichay

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अवस्थिति अक्षांशीय विस्तार – 6°4′ उत्तरी अक्षांश से 37°6′ उत्तरी अक्षांश तक देशांतरीय विस्तार – 68°7′ पूर्वी देशांतर से 97°25′ पूर्वी देशांतर तक . भारत का सबसे उत्तरी बिंदु – इंदिरा कॉल (जम्मू कश्मीर ) भारत का सबसे दक्षिणी बिंदु – इंदिरा प्वाइंट (अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के ग्रेट निकोबार द्वीप का दक्षिण बिंदु ) भारत का सबसे पूर्वी बिंदु – वालांगू (अरुणाचल प्रदेश) भारत का सबसे पश्चिमी बिंदु -सरक्रीक (गुजरात) आकार भारत की आकृति चतुष्कोणीय है. भारत का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग कि.मी. है .इसकी स्थलीय सीमा की लम्बाई 15200 km है तथा समुद्रतट की कुल लम्बाई 7516 km है. पूर्व से पश्चिम इसकी लम्बाई 2933 km है जबकि उत्तर से दक्षिण 3214 km है. भारत की प्रादेशिक जल सीमा तट रेखा से 12 समुद्री मील की दूरी तक है. भारत का संलग्न क्षेत्रमंडल , तट रेखा से 24 समुद्री मील की दूरी तक है . अनन्य आर्थिक जोन के अंतर्गत संलग्न क्षेत्र के आगे के वे समुद्री क्षेत्र आते है जो तट रेखा से 200 समुद्री मील की दूरी तक है . कर्क रेखा भारत के मध्य भाग से 8 राज्यों से होकर गुजरती है. ये राज्य ...

natural-vegetation

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प्राकृतिक वनस्पति प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय उसी पौधा समुदाय से है , जो लम्बे समय तक बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के उगता है और इसकी विभिन्न प्रजातियां वहां पाई जाने वाली मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों में खुद को ढाल लेती है . वनों के प्रकार उष्ण कटिबंधीय सदाबहार व अर्ध सदाबहार वन मुख्यतः पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल पर ,उत्तर – पूर्वी क्षेत्र की पहाड़ियों पर व अंडमान निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं . ऐसे वन ऐसे उष्ण व आर्द्र प्रदेशों में पाए जाते है जहाँ वार्षिक वर्षा 200 cm से अधिक व तापमान 22 डिग्री C से अधिक रहता है . वृक्षों की लम्बाई 60 m या उससे अधिक होता है. मुख्य वृक्ष – रोजवुड ,महोगनी ,ऐनी ,ऐबनी , रबड़ ,आबनूस ,आयरन वुड ,ताड़, बाँस,बैत ,सिनकोना . अर्ध सदाबहार वन अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले भाग में पाए जाते है . मुख्य वृक्ष प्रजातियां – साइडर ,होलक और कैल. उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन इसे मानसून वन भी कहते है . वार्षिक वर्षा 70 – 200 cm तक . जल उपलब्धता के आधार पर आर्द्र व शुष्क पर्णपाती वन में वर्गीकृत . आर्द्र पर्णपाती वार्षिक वर्षा – 100 – 200cm तक ...

irrigation-source-in-india

प्रस्तावना कृषि विकास पर्यावरणीय, राजनीतिक, संस्थात्मक एवं आधार संरचनात्मक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। आधार संरचनात्मक कारकों के अंतर्गत सिंचाई, विद्युत आपूर्ति, रासायनिक या जैविक उर्वरक, उन्नत बीज इत्यादि को शामिल किया जाता है। ये कारक समष्टि एवं व्यष्टि, दोनों स्तरों पर एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करते हैं। सिंचाई कृत्रिम साधनों द्वारा खेतों को जल उपलब्ध कराना सिंचाई कहलाता है। कृत्रिम साधन जैसे- नहर, कुएं, तालाब, बोरवेल इत्यादि। सिंचाई की भूमिका: सिंचाई द्वारा न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में शुद्ध बुआई क्षेत्र की वृद्धि करने तथा बहुविध फसलों को प्रोत्साहन देने के परिणामतः सकल फसल क्षेत्र में वृद्धि होती है। सामान्य मानसून देश के मात्र एक-तिहाई भाग हेतु पर्याप्त होता है। इस प्रकार सिंचाई शेष भागों के लिए अनिवार्य बन जाती है। यहां तक कि पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी मानसून का देरी से आना या जल्दी लौट जाना फसलों के लिए घातक सिद्ध होता है। रबी की फसलों के लिए सिंचाई अनिवार्य होती है। वृद्धिकाल के दौरान अधिकांश फसलों के लिए अतिरिक्त जल की जरूरत होती है। इस प्रका...

major-tribes-of-india

प्रस्तावना भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित नहीं करता है, इसलिए अनुच्छेद 366(25) अनुसूचित जनजातियों का संदर्भ उन समुदायों के रूप में करता है जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार अनुसूचित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, अनुसूचित जनजातियाँ वे आदिवासी या आदिवासी समुदाय या इन आदिवासियों और आदिवासी समुदायों का भाग या उनके समूह हैं जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा एक सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा इस प्रकार घोषित किया गया है। अनुसूचित जनजातियाँ देश भर में, मुख्यतया वनों और पहाड़ी इलाकों में फैली हुई हैं। इन समुदायों की मुख्य विशेषताएं हैं: आदिम लक्षण भौगोलिक अलगाव विशिष्ट संस्कृति बाहरी समुदाय के साथ संपर्क करने में संकोच आर्थिक रूप से पिछड़ापन जनजाति   राज्य भील त्रिपुरा , मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक गोंड बिहार, प. बंगाल, झारखंड , ओड़िसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक संथाल बिहार , त्रिपुरा , प. बंगाल, ओड़िसा, झारखंड मीणा राजस्थान, मध्य प्रदेश नैकड़ा कर्नाटक, राजस्थान, गुजरा...

cotton-industry

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सूती वस्त्र उद्योग सूती वस्त्र का प्रथम आधुनिक कारखाना 1818 में  फोर्ट ग्लास्टर, कोलकाता  में लगाया गया था। भारतीय पूंजी से प्रथम सफल कारखाना  कवास जी डाबर  द्वारा 1854 में  मुंबई  में लगाया गया।सूती वस्त्र उद्योग एक शुद्ध कच्चा माल आधारित उद्योग है।अतः उद्योग की स्थापना कच्चे माल क्षेत्र या बाजार क्षेत्र कहीं भी की जा सकती है।प्रारम्भ में इस उद्योग का विकास कपास उत्पादन वाले क्षेत्रों (मुंबई ,अहमदाबाद आदि) में हुआ। बाद में इसका विकेन्द्रीकरण बाजार की सुविधा वाले क्षेत्रों में हुआ। सूती वस्त्र का उत्पादन तीन क्षेत्रों के तहत होता है –  कारखाना मिल क्षेत्र , शक्ति चालित करघे (पावरलूम क्षेत्र),हथकरघे (हैंडलूम क्षेत्र) । कुल कपड़ा उत्पादन में सूती कपड़े का योगदान लगभग 70 प्रतिशत है। मुंबई तथा उसके आसपास सूती वस्त्र उद्योग के संकेंद्रित होने के पीछे कई कारकों का योगदान है, जो इस प्रकार हैं- बंदरगाह की अवस्थिति से पूंजीगत सामानों, रसायनों इत्यादि का आयात करना तथा तैयार माल का निर्यात करना सुगम हो जाता है। मुंबई रेत व सड़क मार्गों द्वारा गुजरात एव...

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चीनी उद्योग चीनी उद्योग भारत का दूसरा सबसे पहा कृषि-आधारित उद्योग है। इसके लिए मूलभूत कच्चा माल गन्ना है, जिसकी कुछ गुणात्मक विशेषताएं निम्नलिखित हैं- यह अपना वजन खोने वाला कच्चा माल है। इसे तंबे समय तक भंडारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस स्थिति में यह सुक्रोज का क्षय कर देता है। इसे लंबी दूरी तक परिवहित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसकी परिवहन लागत अधिक होती है और इसके सूखने की भी आशंका रहती है। इन कारणों से चीनी मिलों की स्थापना गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के आसपास ही की जाती है। इसके अतिरिक्त गन्ने की कटाई का एक विशेष समय होता है और उसी समय में इसकी पिराई की जाती है। अतः उस सीमित काल को छोड़कर शेष समय में चीनी मिलें बिना कामकाज के खाली पड़ी रहती हैं। इससे चीनी उत्पादन पर कई सीमाएं आरोपित हो जाती हैं। भौगोलिक वितरण: देश में चीनी की कुल उत्पादन क्षमता का लगभग 70 प्रतिशत  उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु  में होता है। भारत में चीनी उद्योग के प्रमुख केंद्रों का प्रदेशवार विवेचन इस प्रकार है- उत्तर प्रदेश:  यहां दो पेटी हैं- एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश और...